सहज
Sunday, March 26, 2017
हो अगर मिटने की तलब
हो अगर मिटने की तलब,
हो अगर मरने ही ख्वाहिश।
अकेले चलने में कोई लाज न हो तो,
किसी के समर्थन की परवाह न हो तो।
विचारों की छमता जो जान गए,
यादों की परिधि जो पहचान गए।
कमान का भ्रम जो टूट गया,
राहों के चक्कर से जो छूट गया।
बाहर से जो मिले वो झूठ लगे,
अंदर में डूब के अब आराम मिले।
विशेष बनाने में कोई रास न हो,
देखने में ही स्वरसपान मिले।
- वागीश (१३ दिसम्बर २०१६ )
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