सहज
Sunday, March 26, 2017
काफिले चले कई
काफिले चले कई , कई राह बन गए,
कई राह घर बसा , काम में उलझ गए।
कई भीड़ में चले, थी न कुछ उन्हें खबर,
कई काज कर चुके, जिंदगी है बेअसर।
आज भी वही हैं, कल थे जहाँ से चले,
मंजिले मिली नहीं , राह भी भटक गये।
जो चले थे एकले, खुद की राह को बना,
देर से ही मगर , मंजिलें उन्हें मिलें।
-वागीश (१६ जनवरी २०१७ )
अकेला पथिक
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