Monday, May 22, 2017

चुनावरहित होश by Krishnamurti

This Choiceless Awareness
Great seers have always told us to acquire experience. They have said that experience gives us understanding. But it is only the innocent mind, the mind unclouded by experience, totally free from the past;it is only such a mind that can perceive what is reality. If you see the truth of that, if you perceive it for a split second, you will know the extraordinary clarity of a mind that is innocent. This means the falling away of all the encrustations of memory, which is the discarding of the past. But to perceive it, there can be no question of 'how'. Your mind must not be distracted by the 'how', by the desire for an answer. Such a mind is not an attentive mind. As I said earlier in this talk, in the beginning is the end. In the beginning is the seed of the ending of that which we call sorrow. The ending of sorrow is realized in sorrow itself, not away from sorrow. To move away from sorrow is merely to find an answer, a conclusion, an escape; but sorrow continues. Whereas, if you give it your complete attention, which is to be attentive with your whole being, then you will see that there is an immediate perception in which no time is involved, in which there is no effort, no conflict; and it is this immediate perception, this choiceless awareness that puts an end to sorrow.

J Krishnamurti

चुनावरहित होश 
महान  संतो ने हमेशा अनुभव अर्जित करने को कहा है।  उन्होंने कहा है कि अनुभव से ही समझ की उत्पति होती है।  लेकिन केवल एक सहज मन , मन जो अनुभवों से उन्मुक्त हो , भूतकाल से पूरी तरह मुक्त ; केवल ऐसा ही मन पूरी तरह से सत्य को समझ सकता है।  अगर तुम इसकी सत्यता को समझ सकते हो , अगर क्षण भर के लिए समझ सको , तो तुम्हे  मन की विलक्षण शुद्धता को  जानोगे जो की सहज है।  इसका मतलब संस्कारो की परतो का ढहना , भूतकाल को पूरी तरह से ठुकरा देना।  मगर इसे समझने के लिए ,' क्यों ' का प्रश्न नहीं उठाना चाहिए।  तुम्हारा मन 'क्यों ' के प्रश्न से बिलकुल भी विचलित नहीं होना चाहिए, न ही उत्तर कीआकांछा से।  ऐसा मन सचेत मन नहीं है जैसा की मैंने पहले कहा , आरम्भ में ही अंत है। 
उसके शुरुआत में ही अंत का बीज है जिसे हम दुःख कहते है। दुःख के अंत का अहसास दुःख में ही होता है , उससे दूर नहीं। 
दुःख से दूर जाना , केवल एक उत्तर ,एक  निष्कर्ष , एक पलायन  के लिए।  लेकिन दुःख तब भी कायम है। जबकि अगर तुम अपना पूरा चेत , अपनी पूरी सत्ता (अस्तित्व ) से देखोगे तो तुम पाओगे वहा तत्काल समझ उपलब्ध है , जिसमे समय निहित नहीं है , जिसमे प्रयास निहित नहीं है, न कोई संघर्ष ; और यही तत्काल समझ , यह चुनावरहित होश दुःख का अंत करेगा।  

 कृष्णमूर्ति



No comments:

Post a Comment